
Eros Times: किसी भी ऐसे क्षेत्र में जीवन देना जिसमें आय का कोई मुख्य साधन न हो। अपने आप में एक बड़ी बात है । थियेटर ऐसा ही फील्ड है । जिसमें इनकम के लिमिटेड रिसोर्सेज हैं। थियेटर के फिल्ड में गजराज नागर नागर 1985 से एक्टिव हैं । वाई एम सी ए, श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स, फ़िल्म आर्काइव ऑफ इंडिया, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से वर्कशॉप, और विभिन्न थिएयर ग्रुप के साथ जुड़ कर अभिनय के साथ रंगमंच की बारीकियों को सीखा। अनेकों नाटकों में अभिनय के साथ नाटकों का निर्देशन लेखन, अभिनय प्रशिक्षण और रंगमंच कार्यशालाओं का आयोजन करते आ रहे हैं। यूं तो गजराज नागर पोस्ट ग्रैजुएट हैं। लेकिन उन्होंने थियेटर को चुना कैसे? आइए इन्हीं सवालों के साथ जानते हैं उनकी थियेटर यात्रा के विषय के बारे में।
आपने बी कॉम के बाद एम कॉम किया और वो भी एकाउंटेंसी एंड बिज़नेस स्टेटिक्स में . आपको तो अकाउंट फिल्ड मैं जाना चाहिए था।
फिर थियेटर से कैसे जुड़े ?

मैंने पांचवी तक पढ़ाई अपने गांव मिलक लच्छी की पाठशाला मैं ही की. 1976 में मेरे पिता जयपाल जी मुझे दिल्ली ले आये . थियेटर टीवी फिल्म से मेरा कोई परिचय नहीं था. हमारे पीटी टीचर थे जोगिंदर सर। उनका बेटा था बिट्टू। वो क्लास में मेरे साथ ही बैठाता था। वो फ़िल्मों की कहानी बड़े ही लाजवाब तरीक़े से सुनता था विद डायलॉग । गोलियों की आवाज़ घोड़ों की आवाज़ उनकी टापों की आवाज़ कमाल की निकालता था। आज तक भी मैं ऐसे किसी स्टोरी टेलर से नहीं मिल पाया जैसा वो था। वहीं से मेरा फ़िल्मों से पहला इंट्रोडक्शन हुआ। बहुत फ़िल्मों की कहानियां उसकी ज़ुबानी सुनी.। फिर हमारे स्कूल और पड़ोस में टी वी आया। वहां से चित्रहार और फिल्म देखने का दौर शुरू हुआ। पिक्चर हॉल से कोई परिचय नहीं था। थियेटर क्या होता है। इसकी तो दूर दूर तक जानकारी नहीं थी। मैं अपनी बात कर रहा हूं। ये शायद बात होगी 1977 की। हमारे स्कूल से लगभग एक दो किलोमीटर दूर बड़ा ही फेमस गार्डन था लोधी गार्डन। वहां पर त्रिशूल फिल्म की शूटिंग चल रही थी। सीनियर क्लास के स्टूडेंट क्लास बंक करके शूटिंग देखने चले गए। हमारी क्लास के सभी बच्चे शूटिंग देखने के लिए तैयार हो गए। क्योंकि मेरे फादर उसी स्कूल में पी जी टी थे। उनकी पिटाई के डर से जाने से मैं मना करने लाग तो सभी बोले तू नहीं चलेगा तो हम सभी मिलकर तुझे पीटेंगे। फिर मैं भी तैयार हो गया। वहां गापुची गापूची गम गम किशिकी किशीकी कम कम, ओ सनम हम दोनों साथ रहें जन्म जन्म । बहुत भीड़ थी। गाने की शूटिंग चल रही थी। उसे देख कर बड़ा आनंद आया। अगले दिन जो भी स्टूडेंट शूटिंग दिखने गया। सभी को ग्राउंड में सभी के सामने मुर्गा बनाया गया। उस समय मैं किसी भी एक्टर को पहचानता नहीं था। मैं बरसों तक एक्टरस के बारे में यही सोचता रहा कि ये देवता लोग होते हैं। जो आसमान से आते हैं।
आपका यह भ्रम कब टूटा ?
ये भ्रम बहुत लंबा चला। मैने कभी किसी से पूछा नहीं। क्योंकि मैं सोच चुका था कि ये देवता लोग होते हैं।
पिक्चर हॉल में मेने पहली फिल्म जय संतोषी मां देखी 1978 में। तभी पहली बार मैंने पिक्चर हॉल देखा। हालांकि यह फिल्म 1975 में रिलीज हो चुकी थी। उसके बाद देखी कहानी किस्मत की। हालांकि यह फिल्म 1973 में रिलीज़ हो चुकी थी। ये भी काफी लेट देखी। पहले फिल्में सालों तक पिक्चर हॉल पर चला करती थी। फिर फिल्मी मैगजीन पढ़ने का शौक लगा। तब थोड़ा समझ आने लगा की एक्टर लोग भी इंसान ही होते हैं।
थियेटर में कैसे आए जरा डिटेल में बताए?
हीरो बनने के चक्कर में। थियेटर बायचेंस ज्वाइन किया । मेरे एक दोस्त ने 1985 में मुझे से कहा की थियेटर ज्वाइन करोगे? मैंने कहा की ये क्या होता है। उसने कहा कि तुम थियेटर नहीं जानते। मैंने कहा कि नहीं। कुछ देर सोचने के बाद उसके मुंह से निकला फिल्म हीरो। फिर क्या था। मेरे अंदर तो बहुत ज्यादा एक्साइटमेंट आ गया। हीरो बनने की चाहत में मैंने गुलशन कुमार जी का अभिकल्प थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया 1985 में। तब तक मैं दिलीप कुमार, राजकपूर, राजकुमार, राजेश खन्ना, अशोक कुमार,देवानंद,विनोद मेहरा, सुनील दत्त, गुरुदत,विनोद खन्ना ,फिरोज खान, डैनी, धर्मेंद्र,अमिताभ बच्चन आदि । धर्मेंद्र और अमिताभ से मैं बहुत प्राभावित था। क्योंकि मैंने इनकी खूब फिल्में देखी। दूरदर्शन पर भी बहुत फिल्में दिखी। गुलशन जी ने कहा कोई डायलॉग सुनाओ। मैंने शोले फिल्म का डायलॉग अमिताभ के अंदाज में सुनाया गब्बर सिंह अपने आदमियों से कह दो की बंदूकें फेंक दे। उन्होंने कहां फिल्म इंडस्ट्री में एक ही अमिताभ काफ़ी है। उन्होंने पच्चीस रुपए शुल्क लेकर थियेटर ग्रुप ज्वाइन करा दिया। इस तरह वहां से मेरी थियेटर की यात्रा शुरू हुई। जैसे जैसे पता चलता रहा वैसे वैसे आगे बढ़ता रहा।जो अभी तक जारी है। हीरो तो ईश्वर ने बनाया नहीं ।
अगर आप अकाउंट्स के फील्ड में जाते तो वहां फाइनेशियली बहुत संभावनाएं थी.
हां थी तो सही । मैंने सी ए ज्वाइन करने के लिए सतीश मेहरा एंड कंपनी में आर्टिकलशिप भी ज्वाइन की। उनके माध्यम से मैं कई कंपनियों में ऑडिट करने भी गया। मुझे समझ आ चुका था कि ये मेरे बस की बात नहीं। फिर मैने सी ए करने का आइडिया छोड़ दिया। सच बताऊं तो अकाउंट्स मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं था। पिता की इच्छा थी इसलिए किया। अपनी इच्छा पर ध्यान नहीं दिया।मन से कभी कोई आवाज आई भी तो उस पर चलने का साहस नहीं था। इसलिए उसे अनसुना कर दिया. जब तक मैं समझ पाता । समय का चक्र आगे निकल चुका था । और समय को पकड़ने का मौक़ा मैं खो चुका था।
आपका कहने का मतलब ये है कि सारे डिसीजन इंसान के हाथ मैं ही होते हैं।
अपना मनपसंद फिल्ड चुनना और उस पर चलना इंसान के अपने हाथ में भी ही होता है। और आपके जो मार्गदर्शक होते हैं। उन पर भी होता है। कई बार परिस्थितियों पर भी होता है। हर किसी के अंदर परिस्थितियों से जूझने की शक्ति नहीं होती है। अगर आप अपना फील्ड चुनने में कामयाब हो जाते हैं तो फिर चिंता करने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि उसमें सफलता पाना बहुत सारी स्थितियों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
यानी आप भाग्य को बड़ा मानते है.
भाग्य को छोटा बड़ा मानने की बात नहीं है। भाग्य के बारे में मैं कुछ नहीं जानता। वो कैसे काम करता है। कुछ लोगों का मानना है कि हम अपना भाग्य खुद लिखते हैं। कुछ का मन है कि भाग्य पूर्व निर्धारित है। हिंदू धर्म में पूर्वजन्म का विशेष महत्व है। यानि हमने पूर्व जन्म में कैसे कर्म किए। पूर्व जन्मों पर भी आपका भाग्य निर्भर करता है। पूर्व जन्म मैं मैने क्या अच्छा बुरा किया। मैं क्या जानू। इसलिए मुझे जो सही लगता है और जो मेरे वश में होता है वो करता जाता हूं। बस मेरी वजह से किसी का बुरा न हो। इसलिए भाग्य के सहारे नहीं सत्कर्मों के सहारे चलता हूं ।
आपको थियेटर करना ही अच्छा लगा. इसलिये आपने थियेटर को चुन लिया ?
नहीं मैंने थिएटर को नहीं चुना। थिएटर ने मुझे चुन लिया। मैंने थिएटर को सिनेमा समझकर चुना था। लेकिन न जाने ऐसा क्या हुआ। मैं थियेटर ही करता चला गया। मन में सिनेमा था। कर्म में थिएटर और आपने सुना ही होगा जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान। प्रैक्टिकल लरूप से अगर हम देखें तो यह बात बिल्कुल सत्य है। जो आप करोगे बदले में वही तो मिलेगा। इतनी छोटी सी बात समझने में जिंदगी निकल गई । मेरा अपना ये अनुभव हैं कि केवल सोचने और सपने दिखने से कुछ नहीं होता है . सोचे हुए सपनों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं जाकर संभावना बनती सपने साकार होने की ।
आपको थिएटर से बहुत प्यार है?
प्यार क्यों नहीं होगा ? प्यार नहीं होता तो कब का छोड़ देता। बगैर प्यार के आप बहुत लंबा नहीं चल सकते। अगर आपने कभी किसी से प्रेम किया होगा तो जाना होगा कि घंटे सेकंडस में बीत जाते हैं। वैसे भी थिएटर तो सदियों पुराना है। थियेटर को मैं सिनेमा की आधारशिला मानता हूं.
किसी की इच्छा सिनेमा की जगह सिर्फ थियेटर करने की हो तो क्या वह अपना घर परिवार इससे चला सकता है ?
इच्छाओं का क्या करें . इच्छाएं तो आपको कुछ कर गुजरने के लिए दीवाना बनाती हैं। किसी भी फील्ड में दीवानापन आपको बना भी सकता है। डूबा भी सकता है। क्योंकि दिवानेपन की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें इंसान होश खो देता है । कितने ही कलाकार अपना जीवन देने के बाद भी गुमनामी में खो गए। कुछ सितारे बनकर खूब चमके। मैं सिर्फ अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। थिएटर से घर परिवार चलाना आसान नहीं है। थिएटर को अगर कोई भी प्रोफेशन के रूप में चुनना चाहते हैं तो आपको बहुत सोच विचार करना पड़ेगा। अच्छे संस्थानों से क्राफ्ट की ट्रेनिंग लेनी होगी। तब कहीं जाकर आप फाइनेंशली ठीक हो सकते हैं। लेकिन फिल्मों की तरह इससे बेशुमार प्रसिद्धि और धन नहीं कमा सकते। हर क्षेत्र के अपने अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं । दोनों को अच्छे से जानना और समझना जरूरी है। वैसे ज़्यादातर कलाकार थियेटर में अभिनय की ट्रेनिंग लेकर सिनेमा टीवी और ओटीटी की तरफ बढ़ जाते हैं . और ये सही भी हैं।
आपके कुछ फेमस प्ले जिनमें आपने अभिनय और निर्देशन किया हो?
ऑथेलो, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, द नाइट दैट वाज, बांसुरी बजती रही, बाकी इतिहास, बड़ी बुआ जी,मैं तेरे शहर में, बाय सुदामा, कुछ पल के अजनबी, अंधा युग, जुलियस सीजर, कैलीगुला, तुगलक के अलावा और भी नाटक है . जिनमें मैने अभिनय किया है । जहां तक निर्देशन का सवाल है । मैंने बहुत सारे नाटकों में अपना निर्देशन दिया है । ताजमहल का टेंडर, द लास्ट लाफ्टर, मैं तेरे शहर में, ऑथेलो, डिजायर अंडर द एलम्स . इसके अलावा स्कूलों में कॉलेज में बहुत नाटकों का निर्देशन किया है ।थिएटर वर्कशापस का आयोजन किया है ।